आदिकाल का नामकरण : एक आलोचनात्मक विवेचन

आदिकाल का नामकरण : एक आलोचनात्मक विवेचन


हिंदी साहित्य का इतिहास सामान्यतः चार प्रमुख कालखंडों में विभाजित किया जाता है—आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल। इनमें से आदिकाल को हिंदी साहित्य के प्रारंभिक विकास-चरण के रूप में मान्यता प्राप्त है। इस युग के नामकरण को लेकर विद्वानों के मध्य पर्याप्त मतभेद परिलक्षित होते हैं। वस्तुतः आदिकाल की विविध प्रवृत्तियों और बहुआयामी काव्यधारा के कारण इसे किसी एक ही नाम से परिभाषित करना सरल नहीं है।

चारणकाल:

डॉ. ग्रियर्सन ने इस काल को चारण काल की संज्ञा दी। उनका आधार मुख्यतः चारण कवियों की रचनाएँ थीं। 

आपत्ति: 

ग्रियर्सन ने काल-प्रारंभ लगभग 643 ई. माना, किंतु उस समय की कोई प्रामाणिक चारण-रचना उपलब्ध नहीं है। चारण साहित्य लगभग 1000 ई. के आसपास प्राप्त होता है। साथ ही आदिकाल केवल चारण कवियों तक सीमित नहीं था। अतः यह नामकरण संकीर्ण और ऐतिहासिक दृष्टि से असंगत सिद्ध होता है।


सिद्ध-सामंत काल 

आचार्य राहुल सांकृत्यायन ने इसे सिद्ध-सामंत काल कहा और सिद्धों की वाणी तथा सामंतों की स्तुतियों को इसका आधार माना।

आपत्ति: 

यह नामकरण केवल दो प्रवृत्तियों तक सीमित है। इसके दायरे से नाथपंथी, जैन तथा अमीर खुसरो जैसे अन्य महत्त्वपूर्ण कवियों की रचनाएँ बाहर रह जाती हैं। इस प्रकार यह नाम युग की समग्र साहित्यिक चेतना का प्रतिनिधित्व नहीं करता। 


बीजवपन काल 

पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसे बीजवपन काल कहा, क्योंकि उनके मतानुसार यह हिंदी साहित्य के अंकुरण का समय था। 

आपत्ति: 

आदिकाल मात्र अंकुरित साहित्य नहीं था; इसमें अपभ्रंश परंपरा की परिपक्व रचनाएँ भी सम्मिलित थीं। हिंदी भाषा का विकास संस्कृत → पाली → प्राकृत → अपभ्रंश → हिंदी की क्रमिक परंपरा में हुआ है। हिंदी साहित्य का वास्तविक बीज संस्कृत में निहित है, न कि केवल आदिकाल में। अतः यह नाम पूर्णत: उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।

अपभ्रंश काल

डॉ. चंद्रधर शर्मा गुलेरी और डॉ. धीरेंद्र शर्मा ने इसे अपभ्रंश काल कहा।

आपत्ति: 

यह नाम हिंदी साहित्य की स्वतंत्र पहचान को धूमिल करता है। आदिकाल वस्तुतः हिंदी की आरंभिक चेतना का काल है, इसलिए इसे मात्र अपभ्रंश साहित्य के नाम से सीमित कर देना यथार्थ के प्रतिकूल है।


वीरगाथाकाल 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस युग को वीरगाथाकाल की संज्ञा दी। उनके अनुसार इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ वीरता और युद्धप्रधान काव्य के इर्द-गिर्द केंद्रित थीं। उन्होंने पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो, हम्मीर रासो, जयचंद प्रकाश, जयमयंक जस चंद्रिका विद्यापति की पदावली आदि को इसका आधार माना।

आपत्ति: 

शुक्ल जी ने सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य को सांप्रदायिक कहकर इन्हें विवेचन योग्य नहीं माना, और इनके ग्रंथों की उपेक्षा की जबकि यह रचनाएँ भी आदिकालीन साहित्य की महत्वपूर्ण धरोहर हैं। और इन्हें सांप्रदायिक कतई नहीं कहा जा सकता। धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्य की कोटि से बाहर नहीं हो सकती और ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसी का रामचरितमानस भी साहित्य के क्षेत्र में नहीं आ पाएगा। और जायसी का पद्मावत भी साहित्य की परिधि से बाहर हो जाएग। जिन 12 ग्रंथों के आधार पर आचार्य शुक्ल ने वीरगाथाकाल नामकरण किया है उनमें से कई की (पृथ्वीराज रासो.....) प्रामाणिकता भी संदिग्ध है। और कुछ ग्रंथ (जयचंद प्रकाश, जयमयंक जस चंद्रिका) केवल उल्लेख मात्र से ज्ञात होते हैं तो कुछ (बीसलदेव रासो, विद्यापति पदावली) विशुद्ध शृंगारपरक है। फलस्वरूप शुक्लजी का नामकरण युग के एक महत्वपूर्ण पक्ष को तो रेखांकित करता है, किंतु उसकी समग्रता को नहीं।


आदिकाल : सर्वाधिक युक्तिसंगत नाम 


आचार्य रामचंद्र द्विवेदी ने इसे आदिकाल कहा, और यह नाम सर्वाधिक उपयुक्त एवं व्यापक माना गया। इस नामकरण के अंतर्गत वीर, भक्ति और शृंगार—सभी प्रवृत्तियों की प्रारंभिक झलक मिलती है। भाषा की दृष्टि से यह युग अपभ्रंश से आधुनिक हिंदी की ओर संक्रमण का द्योतक है। काव्यगत दृष्टि से सिद्ध, नाथ और जैन साहित्य आगे चलकर संत-साहित्य और भक्तिकाल की आधारभूमि तैयार करते हैं। अतः ‘आदिकाल’ नाम न केवल इस युग की समग्रता का उद्घाटन करता है, बल्कि हिंदी साहित्य की विकास-यात्रा की स्पष्ट दिशा भी दिखाता है।


अन्य नामकरण 

कुछ विद्वानों ने इसे अन्य नामों से भी अभिहित किया है— 

संधि एवं चारणकाल – डॉ. रामकुमार वर्मा 

जयकाल – रमाशंकर शुक्ल 'रसाल'

वीरकाल – विश्वनाथ प्रसाद मिश्र 

प्रारंभिक काल – मिश्रबंधु 

आधार काल – सुमनराजे / मोहन अवस्थी


आदिकाल हिंदी साहित्य का वह आधारभूत युग है जिसमें भाषा और साहित्य की विविध प्रवृत्तियाँ आकार ग्रहण कर रही थीं। यह युग न केवल वीरगाथाओं तक सीमित था और न ही केवल सिद्ध साहित्य तक; बल्कि इसमें अनेक प्रवृत्तियों का संगम विद्यमान था। इस प्रकार ‘आदिकाल’ नाम ही हिंदी साहित्य के उद्भव, विकास और विविध प्रवृत्तियों की समग्रता का सबसे प्रामाणिक और युक्तिसंगत परिचायक सिद्ध होता है। 



(लेखक: दिनेश नागर)

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