तुम कहाँ हो
तुम कहाँ हो
नहीं जानता —
तुम कहाँ हो?
पर एक बात कहूँ?
प्रेम...
प्रेम यहाँ भी है,
प्रेम वहाँ भी है।
अगर तुम कण-कण में व्याप्त हो,
हृदय की धड़कन, सत्य-निधि हो;
तो जितना सत्य तुम्हारा है,
उतना ही सत्य हमारा भी है — राम!
हम हैं — तो तुम हो;
तुम हो — तो हम हैं।
अगर सत्य यही है,
तो फिर यह दूरी क्यों?
तुम भी यहीं आ जाओ,
हम भी वहीं आ जाते हैं।
तुम तो वहीं थे,
जहाँ होना था।
मैं पहुँचा ही नहीं वहाँ,
जहाँ मिलना था।
मैं उलझ गया था दर्शन में...
तो इसमें भी तुम्हारी गलती है, राम?
पर तुम आते न — राम!
रास्ता दिखाने को, इस जीवन-पथ में...
रास्ता दिखाने को, इस जीवन-पथ में...
मित्र! मिलन वहीं है
जहाँ प्रेम की पूजा
और समर्पण की भक्ति हो —
क्योंकि —
प्रेम यहाँ भी है,
प्रेम वहाँ भी है...
क्योंकि —
प्रेम यहाँ भी है,
प्रेम वहाँ भी है...
सत्य कहा जाए — तो भी है।
ना कहा जाए — तो भी है।
राम, राम!
सुनो न, राम...
प्रेम जहाँ है,
तुम वहीं हो ना, राम!
लेखक: दिनेश नागर, राजस्थान
ना कहा जाए — तो भी है।
राम, राम!
सुनो न, राम...
प्रेम जहाँ है,
तुम वहीं हो ना, राम!
लेखक: दिनेश नागर, राजस्थान
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