राष्ट्रवाद : आत्मा की शपथ

राष्ट्रवाद : आत्मा की शपथ


राष्ट्रवाद कोई शुष्क विचार नहीं,

वह आत्मा की शपथ है—

एक अखण्ड ज्योति,

जो हमारी संस्कृति को निरंतर

आलोकित करती रहती है।


राष्ट्र न किसी का निजी अधिकार है,

न किसी विचारधारा की संकीर्ण परिभाषा।

वह तो हमारी सामूहिक चेतना है,

हमारी समवेत वाणी की शाश्वत भाषा।


राष्ट्र वह विराट वटवृक्ष है,

जिसकी जड़ें आत्मा की गहराइयों में धँसी हैं,

और जिसकी शाखाएँ जीवन को छाँह, आश्रय और अमिट सुरक्षा प्रदान करती हैं।


राज्य को बाँधता है संविधान,

पर राष्ट्र को साधती है आत्मा।

राज्य बाहरी अनुशासन है,

जबकि राष्ट्र भीतरी अनुभूति—

हृदय की गहराइयों से उठती हुई शपथ।


जब जाति, धर्म, भाषा और अर्थ की रेखाएँ

राष्ट्र की गंगा में उतरती हैं,

तो लहरों की भाँति विलीन हो जाती हैं।


यही भावना किसान को यह शक्ति देती है कि तपती धूप और कड़ाके की ठंड में भी वह अन्न उगाता रहे।

यही भावना सैनिक को यह संकल्प देती है कि वह सीमाओं पर पर्वत की भाँति अडिग खड़ा रहे।


राष्ट्रवाद कोई बाहरी शोर नहीं,

यह अंतर्मन की वीणा की तान है—

जो हमें बार-बार स्मरण कराती है कि हमारी सबसे बड़ी पहचान,

हमारा सर्वोच्च गौरव— केवल राष्ट्र है।


व्यक्तिगत पहचानों का कोलाहल

जब राष्ट्र की विराट धारा में उतरता है,

तो नदी की तरह सागर में मिलकर मौन और शांति में रूपांतरित हो जाता है।


जब कर्म और कर्तव्य

राष्ट्र की गति से जुड़ जाते हैं,

तभी वह राष्ट्रधर्म कहलाता है।

राष्ट्र वह दीप है, जिससे हम आलोकित होते हैं

और अंततः उसी में लय हो जाते हैं।


और तब उठता है प्रश्न—

“सच्चा राष्ट्रवादी कौन?”


उत्तर सरल है—

वही, जो भेदभाव से ऊपर उठे;

वही, जो सद्भाव की गंगा को अविरल बनाए रखे;

वही, जो संस्कृति की ज्योति को अनन्त तक जलाए रखे;

और वही, जो अपने श्रम और अपने कर्म से

राष्ट्र की शपथ निभाए।


हाँ—

वही है सच्चा राष्ट्रवादी,

क्योंकि राष्ट्रवाद अंततः

आत्मा की वह शपथ है,

जो हमें एक सूत्र में बाँधकर

अमर ज्योति बन जाती है।



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लेखक: दिनेश नागर

स्थान: बूंदी, राजस्थान



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