सिद्ध साहित्य : स्वरूप, विकास और विशेषताएँ

 

सिद्ध साहित्य : स्वरूप, 

विकास और विशेषताएँ


सिद्ध साहित्य ने आदिकालीन हिंदी साहित्य में मानव-चेतना के जागरण और सामाजिक सुधार में अद्वितीय योगदान दिया। यह वह युग था जब समाज धर्म, संस्कृति और ज्ञान — तीनों स्तरों पर गहन परिवर्तन से गुजर रहा था। वैदिक परंपराएँ जहाँ कर्मकांडों और जातिगत बंधनों में जकड़ चुकी थीं, वहीं बौद्ध धर्म अपनी मूल सहजता और करुणा के मार्ग से हटकर तांत्रिक आडंबरों और दिखावे में उलझ गया था।

इस संक्रमणकाल में कुछ चिंतनशील साधक और मनीषी आगे आए, जिन्होंने समाज के पाखंड, आडंबर और धार्मिक दिखावे की परतों को हटाकर मानव-चेतना को प्रत्यक्ष अनुभव और सत्य की ओर मोड़ दिया। यही वे सिद्ध योगी थे, जिनकी अनुभूति-प्रेरित वाणी और जीवन-दृष्टि से सिद्ध साहित्य का उद्भव हुआ।

सिद्ध साहित्य केवल धार्मिक या दार्शनिक अभिव्यक्ति नहीं था, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक और बौद्धिक क्रांति का दस्तावेज भी था। इस साहित्य ने जीवन के मौलिक मूल्यों, साधना की सहजता और मानवता की प्रतिष्ठा पर बल दिया। इसमें यह स्पष्ट किया गया कि मुक्ति और ज्ञान किसी मंदिर, ग्रंथ या बाह्य साधन से नहीं, बल्कि मनुष्य के अंतःस्थित चेतन अनुभव और आत्मानुभूति से प्राप्त होते हैं।


उद्भव और विकास


सिद्ध साहित्य का उद्भव लगभग 8वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य हुआ। यह काल राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक विघटन और धार्मिक दिखावे का था। बौद्ध धर्म, जो मूलतः करुणा, विवेक और समानता का प्रतीक था, धीरे-धीरे वज्रयान रूप में परिवर्तित हो चुका था, जिसमें साधना की जगह तंत्र-मंत्र, यंत्र और कर्मकांड ने ले ली थी।

इन साधकों ने अपने अनुभव और ज्ञान को सरल जनभाषा में प्रस्तुत किया, ताकि समाज के प्रत्येक व्यक्ति तक उनका संदेश पहुँच सके। यही साधक और उनकी वाणी धीरे-धीरे सिद्ध परंपरा के रूप में विकसित हुए।

डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते हैं —

“देशकाल की बदलती परिस्थितियों ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों में जिन नवीन भावनाओं की सृष्टि की, उन्हीं की परिणति सिद्ध साहित्य के रूप में हुई।”

सिद्धों ने संस्कृत के आडंबरों से हटकर जनभाषा (आदि-अवहट्ट और प्राकृत रूप) में अपनी बात कही। इस प्रकार यह साहित्य न केवल भाषा के विकास का प्रमाण है, बल्कि सामाजिक चेतना और लोकानुभव का भी प्रतिबिंब है।

इस विषय पर मतभेद भी प्रकट हुए हैं। आचार्य रामचंद्र ने सिद्ध साहित्य को सांप्रदायिक कहकर शुद्ध साहित्य की कोटि से बाहर कर दिया। उन्होंने लिखा —

“वे सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं।”

किंतु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस मत का खंडन करते हुए कहा —

“जिस साहित्य में केवल धार्मिक उपदेश हों, उससे वह साहित्य निश्चित रूप से भिन्न है, जिसमें धर्म-भावना प्रेरक शक्ति के रूप में काम कर रही हो...धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं की जा सकती।”

इस प्रकार सिद्ध साहित्य केवल सांप्रदायिक उपदेशों का संकलन नहीं, बल्कि मानव-जीवन की गहराई, साधना की सरलता और आत्मानुभूति की व्यापकता का सजीव दस्तावेज है।


दार्शनिक दृष्टि


सिद्ध साहित्य का मूल दर्शन अद्वैत, शून्यवाद और रहस्यवाद पर आधारित है। सिद्धों का मानना था कि परम सत्य कोई बाह्य ईश्वर नहीं, बल्कि मनुष्य की आत्मा और उसकी चेतना में निहित है। उनके अनुसार ज्ञान का वास्तविक स्रोत बाहरी वस्तुओं या ग्रंथों में नहीं, बल्कि व्यक्ति के भीतर की अनुभूति में स्थित है।

इसलिए साधक को मुक्ति की खोज न मंदिरों में करनी चाहिए, न तीर्थों में, और न ही शास्त्रों के अध्ययन में; बल्कि उसे अपने भीतर उतरकर आत्म-साक्षात्कार की साधना करनी चाहिए। सिद्धों का विश्वास था कि सत्य और मोक्ष की अनुभूति मनुष्य के अपने अनुभव और साधना से ही संभव है। इस मार्ग में गुरु की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी गई है, क्योंकि वही साधक को आत्मज्ञान और परम सत्य की ओर मार्गदर्शन करता है।


सिद्ध साहित्य की  विशेषताएँ


1. बौद्ध धर्म की विकृति का परिणाम —


सिद्ध साहित्य मूलतः बौद्ध धर्म के वज्रयान पंथ से संबद्ध है। यह उस युग की सामाजिक एवं धार्मिक विकृतियों की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुआ।


2. वैदिक एवं ब्राह्मण धर्म का खंडन —


सिद्ध कवियों ने वेदों तथा ब्राह्मणवादी कर्मकांडों की तीव्र निंदा की। उन्होंने बाह्य पूजा-पद्धतियों को निरर्थक बताते हुए उनके स्थान पर आंतरिक साधना को प्रधानता दी।


3. पाखंड और आडंबर का विरोध —


सिद्धों ने समाज में व्याप्त पाखंड, अंधविश्वास और आडंबर का प्रखर विरोध किया। वे कर्मकांड से अधिक ज्ञान, आत्मानुशासन एवं साधना को महत्व देते थे।


4. तंत्र और हठयोग का प्रभाव —

सिद्धों ने तांत्रिक साधना और हठयोग की विधियों को अपनाया। उन्होंने शरीर को साधना का प्रमुख माध्यम माना तथा योग-साधना, काया-साधना और शून्य समाधि पर विशेष बल दिया।


5. परोपकार और मानवीय मूल्यों का उपदेश —


सिद्ध साहित्य में दया, दान, करुणा, परोपकार और मानवता का गहन संदेश निहित है। उन्होंने व्यावहारिक जीवन में नैतिकता, सह-अस्तित्व और सदाचार का समर्थन किया।


6. आशावादी दृष्टिकोण —


सिद्ध कवियों ने निराश जनमानस में आशा का संचार किया।

“जो जनता नरेशों की स्वेच्छाचारिता, पराजय या पतन से त्रस्त होकर निराशावाद के गर्त में गिरी हुई थी, उसके लिए सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया।” — डॉ. रामकुमार वर्मा।


7. स्त्री के प्रति दृष्टिकोण —


सिद्धों ने स्त्री-सेवन को साधना का अनिवार्य अंग माना। उन्होंने नारी को ‘योग-सहचरी’ के रूप में स्वीकार किया तथा पारंपरिक विवाह-प्रथा में उनकी आस्था नहीं थी। उनके विचारों में आधुनिक ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ जैसी प्रवृत्ति का भी संकेत मिलता है।


8. ईश्वर की सत्ता का निषेध —

सिद्धों ने किसी एक ईश्वर या परम सत्ता में विश्वास नहीं किया। उनके अनुसार आत्मा और ब्रह्म का द्वैत भेद अस्वीकार्य था।


9. पंचमकार की प्रतिष्ठा —


सिद्धों ने मत्स्य (मछली), मांस, मदिरा, मुद्रा (नृत्य/आसन) और मैथुन — इन पंचमकारों को साधना के प्रतीक रूप में स्वीकार कर उन्हें साधनात्मक दृष्टि से उचित ठहराया।


10. गुरु-महिमा का प्रतिपादन —


सिद्ध साहित्य में गुरु को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। गुरु को साधना तथा मोक्ष का मार्गदर्शक और परम तत्व तक पहुँचने का साधन माना गया है।


11. जाति-भेद का विरोध —


सिद्धों ने जाति-प्रथा, ऊँच-नीच के भेद तथा सामाजिक असमानता का दृढ़तापूर्वक खंडन किया। उनके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं।


12. रहस्यवाद की अभिव्यक्ति —

सिद्ध काव्य में रहस्यवाद, प्रतीकात्मकता और गूढ़ार्थ की प्रचुरता मिलती है। उनके वचन बाह्य रूप से सरल प्रतीत होते हुए भी गहन दार्शनिक अर्थों को धारण किए हुए हैं।


इस प्रकार, सिद्ध साहित्य समाज-सुधार, आत्मानुभव, योग-साधना और मानव-कल्याण का सशक्त संदेश देता है। यह मध्यकालीन भारतीय समाज में धार्मिक जागरण और मानवीय चेतना का प्रतीक है।


आचार्य रामचंद्र शुक्ल की सिद्ध साहित्य संबंधी प्रमुख बातें


1. तांत्रिक योगियों को लोग अलौकिक शक्ति-संपन्न मानते थे।


2. ये अपनी सिद्धियों और विभूतियों के लिए प्रसिद्ध थे।


3. बिहार के नालंदा और विक्रमशिला विद्यापीठ इनके प्रमुख केंद्र थे।


4. वज्रयान में आकर ‘महासुखवाद’ का प्रवर्तन हुआ।


5. प्रज्ञा और उपाय के योग से इस महासुख की प्राप्ति मानी जाती थी।


6. निर्वाण के तीन अवयव — शून्य, विज्ञान और महासुख।


7. सिद्धि प्राप्ति के लिए स्त्री (शक्ति, योगिनी, महामुद्रा) का योग या सेवन आवश्यक था।


8. वज्रयानी महासुख में साधक शून्य में विलीन हो जाता है; इसका प्रतीक ‘युगन्ध’ (स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा) है।


9. रहस्यवादियों की सार्वभौम प्रवृत्ति अनुसार ये अपनी वाणियों के सांकेतिक अर्थ भी बताते थे।


10. वज्रयानी सिद्धों का मुख्य क्षेत्र भारत का पूरबी भाग था।


11. जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों से उनका कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था।


प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ


सरहपा —

सरहपा का समय राहुल सांकृत्यायन ने 769 ई. (आठवीं शताब्दी के साठ का दशक) माना है। इनके द्वारा रचित 32 ग्रंथ माने जाते हैं, जो अब उपलब्ध नहीं हैं; किन्तु ‘दोहाकोश’ उपलब्ध, प्रकाशित और प्रसिद्ध है। ‘दोहाकोश’ का संपादन प्रबोधचंद्र बागची ने किया था।

सरहपा ने पाखंड और आडंबर का विरोध करते हुए समाधि की ध्यानावस्था का चित्रण किया है—

“जहि मन पवन न संचरहि रवि ससि नाह पवेस।

तेहि बट चित्त बिसाम करू, सरहें कहिउ उएस।। ”

अर्थात् जहाँ मन, पवन, सूर्य और चंद्रमा का प्रवेश नहीं, वहीं अपने मन को ध्यान में लगाओ।

पंडितों को फटकारते और अंतर साधना पर बल देते हुए सरहपा कहते हैं—

“पंडिअ सहल सत्त बक्याणइ। देहहि बुद्ध बसंत न जाणइ।।”

अर्थात् पंडित हमेशा सत्य का बखान करते हैं, किन्तु वे शरीर और बुद्धि का महत्त्व नहीं समझते।


शबरपा —

शबरपा का जन्म 780 ई. में क्षत्रिय कुल में हुआ था। ये सरहपा के शिष्य थे। ‘चर्चापद’ इनकी प्रसिद्ध रचना है। इन्होंने माया-मोह का विरोध कर सहज जीवन पर बल दिया।


लुइपा —


लुइपा का जन्म राजा धर्मपाल के शासनकाल में कायस्थ परिवार में हुआ था। चौरासी सिद्धों में इनका सबसे ऊँचा स्थान माना जाता है। इनकी कविता में रहस्य-भावना की प्रधानता पाई जाती है।


कण्हपा —


इनका जन्म कर्नाटक के ब्राह्मण परिवार में 820 ई. में हुआ था। इन्होंने दार्शनिक विषयों पर अधिक लिखा है। रहस्यात्मक और भक्ति-प्रधान गीतों की रचना कर ये हिंदी कवियों में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने शास्त्रीय रूढ़ियों का खंडन किया है।


डोम्भिपा —

इनके ‘डोम्बिगीतिका’, ‘योगचर्या’ तथा ‘अक्षरद्विकोपदेश’ नामक ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध हैं।


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आदिकालीन परिस्थियाँ


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