रीतिकालीन काव्य का स्वरूप और विशेषताएँ

रीतिकालीन काव्य का स्वरूप और विशेषताएँ


रीतिकाल 17वीं शताब्दी के मध्य से 19वीं शताब्दी के मध्य तक भारतीय समाज की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संरचना का ऐसा दस्तावेज़ है, जिसमें शासन-सत्ता के साथ रचना की संगति दिखाई पड़ती है। यह समय मुग़ल-सत्ता के चरमोत्कर्ष और उसके पुनः बिखरने की करुण कहानी से जुड़ा हुआ है।


मुगल साम्राज्य अपने वैभव, विलासिता और चकाचौंध के लिए जाना जाता है। इस मुग़लिया वैभव में भारतीय समाज किस तरह देशी-रजवाड़ों व सामंतों के बीच घिरा हुआ था, और राजसत्ता के साथ सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक, संस्कृति व समाज के केंद्र बिंदु कवि किस तरह राजसत्ता से जुड़ने के बाद कविता अपने सामाजिक अभिप्राय से कट जाती है, यह स्पष्ट दिखाई देता है।


रीति-कविता अपने जमाने की राजसत्ता से जुड़ी वह कविता है, जो मनुष्य मात्र की चेतना से न जुड़कर राजप्रस्तुति और राजप्रसंशा को ही कविता का धर्म मान लेती है, या इससे आगे बढ़कर अभिजात जीवन-शैली, शब्द-चमत्कार और तराश में डूब जाती है। रीति-कविता मूलतौर पर अभिजात जीवन शैली, चकाचौंध और शिल्प की नायाब प्रस्तुति की कविता है।


यहाँ सामाजिक यथार्थ और जीवन की विषमताओं को नहीं देखा गया। यह कविता युगीन अंधियारे से विमुख होकर सीधे-सीधे हमारे जीवन के मनोरंजन और आह्लाद से तादात्म्य स्थापित करती है।


“लौकिक शृंगारमयी भोगात्मक प्रवृत्तियों की प्रधानता ही उनमें (रीतिकालीन कवियों में) अधिक दिखायी पड़ती है। समाज में तथा कवियों में उस समय जनजीवन के लिए कोई ऐसा लक्ष्य विशेष नहीं था, जो व्यापक रूप में प्रेरणा जगा सकता और साधनापूर्ण जीवन का विकास कर सकता; इसलिए तत्कालीन रीतिकाव्यों में किसी नवीन जीवनदर्शन का प्रतिबिम्ब दिखायी नहीं पड़ता। कोई सामाजिक या धार्मिक आंदोलन भी ऐसा नहीं हुआ, जो मानव-जीवन को सच्ची चेतना और प्रेरणा प्रदान करता। राजाओं की विलासिता के प्रभाव से जैसी आशा की जा सकती थी, वही दृश्य कविता में भी दिखायी दिया।” — संपादक डॉ. की किताब।



रीतिकाल की विशेषताएँ


दरबारीपन:

दरबारीपन रीति कविता की मुख्य प्रवृत्ति है। दरबार की शान-शौकत, राजप्रस्तुति, और राजाओं के जीवन के एक-एक ब्यौरे को प्रस्तुत करना ही रीति कवियों का आदर्श था। रीतिकाल का कवि मुग़ल दरबार के साथ-साथ देशी रजवाड़ों और सामंतों के भौतिक जीवन और विलासिता को भी अपनी कविता का मुख्य विषय बनाता है। इस मोड़ पर वह दरबार में बहते पानी की चादर, और राजमहलों में उपस्थित मीनारों, स्तंभों आदि पर की गई पच्चीकारी और मीनाकारी को भी अपनी कविता का मुख्य विषय बना देता है। अतः रीति कविता स्थापत्य–चित्रण की बड़ी कविता है।



शृंगारिकता:

शृंगारिकता भी रीति कविता की प्रमुख प्रवृत्ति है। शृंगार मानवीय जीवन का स्थायी, रसात्मक भाव-बोध है। रीतिकालीन कवि मनुष्य के इसी शृंगारिक भाव को अपनी कविता में केंद्रीय उपस्थित प्रदान करते हैं। शृंगार में भी विशेषकर संयोग शृंगार को —


“नैन नचाई काहौ, मुस्काई लल्ला!

फिर आइयो खेलन होरी।” — पद्माकर


यह कहना कि रीतिकाल शृंगारिक जीवन के उत्सव का काल है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शृंगार के जितने भी चित्र संभव हैं, वे सब रीतिकाल में मौजूद हैं।


अलंकारिता:

रीति कविता अलंकृत और परिष्कृत है। शब्द-प्रयोग में रीति कवि अत्यंत सजग और सावधान थे। बिहारी, देव, पद्माकर जैसे कवियों के दोहों और पदों में एक भी शब्द ऐसा नहीं है, जिसे इधर-उधर किया जा सके। उनके यहाँ शब्द रत्नों की भाँति जड़े हैं। रीति कवि शब्दों को तराशता है और एक कुशल शिल्पी की तरह, सही संदर्भ में उनका सटीक प्रयोग करता है। अतः रीति कविता शब्द-प्रयोग, शब्द-चमत्कार और मार्मिक चित्रण के लिए प्रसिद्ध है।


“भक्ति काल में कविता का भावलोक यदि उच्च और मनोहारी था, तो रीतिकाल में कविता का कलापक्ष सुंदर और चमत्कारी बना।” — संपादक डॉ. नगेंद्र की किताब।


रीति-निरूपण:

रीति-निरूपण ग्रंथों की दो प्रमुख प्रवृत्तियाँ रही हैं: सर्वांग-विवेचन और विशिष्टांग-विवेचन।

सर्वांग-विवेचन में काव्य के भी अंगों का अध्ययन किया जाता है। इसमें काव्य-लक्षण, काव्य-हेतु, काव्य-प्रयोजन, काव्य-भेद, शब्द-शक्ति, काव्य की आत्मा (रस, ध्वनि), काव्य-गुण, काव्य-दोष, काव्य-रीति, अलंकार और छंद का विवेचन शामिल होता है।

विशिष्टांग-विवेचन में केवल कुछ काव्यांगों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, मुख्यतः रस, अलंकार और छंद।

रीति-निरूपण ग्रंथों का मुख्य उद्देश्य सामान्य पाठकों को काव्यशास्त्र का सरल, सुबोध और रोचक ज्ञान प्रदान करना था। इनमें संस्कृत काव्यशास्त्र में प्रचलित विभिन्न शैलियों का अनुकरण किया गया है।


भक्ति:

भक्ति, रीति-कविता की गौण प्रवृत्ति है। कवि जब अपने जीवन पर विचार करता है और जीवन की सार्थकता को खोजता है, तो उसे ईश्वर की शरण और भक्ति का मार्ग दिखाई पड़ता है। भक्ति उसके लिए जीवन में शांति की खोज का एक दार्शनिक भाव है।


“रीतिकाल में जहाँ सामंतों और राजाओं का जीवन विलासिता से परिपूर्ण था, वहाँ सामान्य जनता, जो सच्ची-सीधी थी और खुशामदी बातों से दूर थी, प्रायः धार्मिक वृत्ति की बन गई थी तथा पूर्ववर्ती भक्तिभाव-धारा के प्रवाह में योग दे रही थी।” — संपादक डॉ. नगेंद्र की पुस्तक।


भक्ति विषयक उदाहरण —


1. मेरी बाधा हरौ, राधा नागरिक सोइ।

जा तन की झांई परै, स्याम हरित दुति होइ।।


2. बानी जगरानी की उदारता बखानी जाय।

ऐसी मति कहौं धौं, उदार कौन की भई।।


3. नीकी दई अनाकानी, फीकी परी गुहार।

तज्यो मनौ तारन-बिरदु, बारक बारनु तार।।


नीति:

नीति भी रीतिकाल की गौण प्रवृत्तियों में से एक है। नीति के दोहे जीवन-व्यवहार की संगति से जुड़े हैं। नीति मूलतः इस युग में जी रहे लोगों के सामाजिक व्यवहार का एक हिस्सा है, जिससे कवि जुड़ता है। यहाँ कवि राज्य व राजप्रस्तुति की बात न कर, मनुष्य-मात्र की चिंता करता है और अपने वास्तविक कवि-धर्म को निभाता है; जैसे—


“नहिं पराग, नहिं मधुर मधुकर, नहिं विकास इहि काल।

अलि कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल।।”


इसी प्रकार रीतिकाल की एक प्रवृत्ति ज्योतिष, वैदिक व सामाजिक ज्ञान की भी रही है। वे सारी प्रवृत्तियाँ हैं, जो मानव-जीवन से जुड़ी हैं। रीतिकाल को केवल यह कहना कि यह भौतिक भोग-विलास और राजप्रस्तुति तक सीमित कविता का अंधकार-युग है, तो यह रीतिकाल की अधूरी व्याख्या होगी।


रीतिकाल मूलतः मानव की उन तमाम विशेषताओं पर प्रकाश डालता है, जिनसे हमारे जीवन के सरोकार जुड़े हुए हैं। रीति-कविता मनोरंजन, धनार्जन के साथ-साथ ज्ञानार्जन की भी एक बड़ी कविता है। यह बार-बार हमसे हमारे सामाजिक आचरण, नीति और नियमों की बात करती है, और इसी के साथ हमारे जीवन के सुख-दुःख तथा वैभव-विलास की भी बात करती है।



रीतिकालीन कविता विषयक प्रमुख तथ्य


1. रीति कविता राजाओं और रईसों के आश्रय में पली है।


2. रीतिकालीन वीरकाव्य रासोकाव्य की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक है।


3. रीतिकालीन कविता में अलंकरण की प्रधानता है।


4. रीतिकालीन कविता में लक्षण-ग्रंथों की प्रमुखता है।


5. रीतिकाल की प्रमुख भाषा ब्रजभाषा है।


6. रीतिकालीन साहित्य पर संस्कृत काव्यशास्त्र की गहरी छाप है।


7. रीतिकालीन काव्य में शृंगार रस की प्रधानता रही है।


8. रीतिकालीन रचनाओं में अधिकांशतः काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों को छंदों में बद्ध किया गया है, जबकि कुछ रचनाएँ लक्षण-मुक्त हैं।


9. काव्य रूप की दृष्टि से रीतिकालीन कविता में मुक्तक की प्रधानता रही है।


10. रीतिकालीन कवियों का दृष्टिकोण नारी के प्रति संकुचित था — नारी को विलासिनी या रूपवती प्रेमिका के रूप में चित्रित किया गया, न कि आदर्श रूप में।



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