बिहारी : काव्य, कला और जीवन का पूर्ण समन्वयकारी कवि


बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। रीतिकाल को समझने के लिए बिहारी से बड़ा कोई संदर्भ नहीं मिलता। उनकी सबसे बड़ी विशेषता है—कल्पना की समाहारशक्ति के साथ भाषा की समाहारशक्ति। दोहे जैसे छोटे–से छंद में जीवन के बहुआयामी भावों को समेटने में वे पारंगत हैं। बिहारी को रीतिसिद्ध कवि माना गया है। वे मूलतः जीवन और प्रकृति के गहन पर्यवेक्षक कवि हैं।

मुक्तककार होने के बावजूद बिहारी ने जीवन की बहुलता, उसकी व्यापकता और गहराई को अत्यंत व्यापक संदर्भों में प्रस्तुत किया है, जिससे प्रत्येक पहलू का सार और उसका गूढ़ अर्थ पाठक के समक्ष स्पष्ट रूप से उभरकर आता है।

मध्यकालीन सामंती परिवेश, भौतिकता और चकाचौंध से भरे समाज में, ऐश्वर्य में डूबे राजकुमारों–राजकुमारियों को जीवन की सच्चाइयों, मानवीय मूल्यों और व्यावहारिक अनुभवों की ओर सावधान करने का प्रयत्न उन्होंने लगातार किया।

उनके दोहे सामंती मनोवृत्ति पर तीखी टिप्पणी और सूक्ष्म व्यंग्य के रूप में सामने आते हैं, जो जीवन की यथार्थता और सामाजिक चेतना दोनों को प्रकट करते हैं।


कहा जाता है कि जब बिहारी राजा जयसिंह से मिलने पहुँचे और देखा कि राजा नई–नवेली वधू में मग्न हैं जबकि जनता दुःख–दारिद्र्य में कराह रही है, तब उन्होंने संदेशवाहक के माध्यम से दोहे के रूप में एक पर्ची भेजी—

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिकाल।

अली कली ही स्यों बँध्यो, आगे कौन हवाल।।


यह दोहा जब राजा के पास पहुँचा, तो वे तिलमिलाकर बाहर आए। इससे स्पष्ट होता है कि बिहारी केवल शृंगार के कवि नहीं थे, बल्कि सामाजिक चेतना से संपन्न कलाकार थे, जिनके दोहे व्यंग्य और जीवन–सत्य दोनों को एक साथ अभिव्यक्त करते हैं।


बिहारी रससिद्ध साधक, गागर में सागर भरने वाले कलाकार और लघु छंद के बड़े शिल्पी हैं। उनके यहाँ शब्द, विरामचिह्न और लय अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ जीवन के मार्मिक निचोड़ को सामने रखते हैं। संयोग और वियोग शृंगार की ऊहात्मक कल्पना, नीति और जीवन के गहरे अर्थ—सभी उनके दोहों में सहज रूप से उपस्थित हैं। उनकी दृष्टि प्रकृति और मनुष्यता दोनों को समान रूप से समझती है।


वे उन शक्तियों को भी चेतावनी देते हैं जो मनुष्यता के लिए खतरा बनती हैं। यद्यपि रीतिकालीन सामंती संरचना और आश्रित कवि होने के नाते उन्होंने दरबारी संस्कारों के अनुकूल भी लिखा, परंतु अपने एकांत चिंतन में वे जीवन के गूढ़ और मानवीय पक्षों को गहराई से उजागर करते हैं—


दीरघसाँस न लेहि दुख, सुख साईं नहिं भूलि।

दई दई क्यौं करतु है, दई दई सु कबूलि।।


बंधु भए का दिन कै, को तार् यौ रघुराइ।

तूठे तूठे फिरत हौ, झूठे बिरद कहाइ।।


इन दोहों में जीवन, प्रकृति, ईश्वर, मनुष्य और समाज पर उनकी गहरी दृष्टि दिखाई देती है। वहीं रीति-मनोवृत्ति के अनुरूप उन्होंने दरबारी सौंदर्यबोध को भी संवारा—


अंग अंग नग जगमगति, दीप सिखा सी देह।

दिया बुझाए हूँ रहै, बड़ौ उजेरो गेह।।


छुटी न सिसुता की झलक, झलक्यौ जोबानु अंग।

दीपति देह दुहून मिलि, दिपति ताफता–रंग।।


किन्तु बिहारी अपने ढंग से रीतिकालीन समय में भी जीवन की पूर्णता के कवि हैं—


तंत्री नाद, कवित्त रस, सरस राग रति रंग।

अनबूड़े बूड़े तिरे, जू बूड़े सब अंग।।


अर्थात बिहारी ने दोहे जैसे छोटे छंद में जीवन, मानव-प्रकृति और अपने समय की संस्कृति का सघन चित्रण किया। उन्होंने मनुष्य के शाश्वत सत्य का विश्लेषण किया। यही कारण है कि बिना महाकाव्य लिखे भी वे जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों के माध्यम से उसकी पूर्णता साधने वाले महान् कवि बन गए।


ब्रजभाषा पर बिहारी का असाधारण अधिकार था। उनके यहाँ शब्द रत्नों की भाँति जड़े हैं। शब्दों को माँजने, चमकाने और संवारने में वे सिद्धहस्त हैं।


डॉ. नगेन्द्र के अनुसार —


1. बिहारी का जयपुर राजपरिवार में विशिष्ट स्थान था।


2. उनकी ख्याति का मूल आधार ‘बिहारी सतसई’ है, जिसमें ध्वनि–काव्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं; अतः यह रचना रीतिबद्ध मानी जाती है।


3. मुक्तक परंपरा में बिहारी का स्थान शीर्ष पर है।


4. उनका संपूर्ण जीवन काव्य-साधना में बीता, इसलिए उनका प्रत्येक दोहा मर्मस्पर्शी है।


5. उन्होंने रूप-वर्णन, वय:संधि और युवावस्था की मधुर झलकियों का यथार्थ चित्रण किया है।


6. संयोग-शृंगार के चित्रण में वे सिद्धहस्त हैं।


7. ‘बिहारी सतसई’ शृंगार, भक्ति और नीति की त्रिवेणी है।


8. वे हिन्दी साहित्य के गौरव और ‘सतसई’ काव्य की अपूर्व निधि हैं।


इस प्रकार, बिहारी काव्य, कला और जीवन—तीनों के अद्भुत समन्वयकारी कवि हैं, जिनकी दृष्टि सौन्दर्य के साथ-साथ जीवन के यथार्थ और मानवीय गहराई को भी प्रकाशित करती है।


लेखक: दिनेश नागर 


https://www.anubbutisevimarshtak.com/2025/10/ghananand-prem-ki-peer-ka-kavi.html घनानंद: प्रेम की पीर का कवि

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