घनानंद: प्रेम की पीर का कवि
घनानंद: प्रेम की पीर का कवि
घनानंद रीतिमुक्त काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। घनानंद ने अपने मन की अनुभूतियों को शब्दों में ढालकर जीवन–पीड़ा को अभिव्यक्त किया है। घनानंद मूलतः प्रेम और सौन्दर्य के पारखी कवि हैं। इनके यहाँ जो प्रेम है, जो पीड़ा है, वह स्वयं के जीवन–इतिहास से गुजरा हुआ यथार्थ है। इस पीड़ा को समझने के लिए एक अलग आँख की जरूरत है।
घनानंद कवित्त के संकलनकर्ता श्री ब्रजनाथ उन्हें समझने की कुछ शर्त रखते हैं –
नेही महा ब्रजभाषा–प्रवीण औ सुंदरतानि के भेद को जानै।
योग–बियोग की रीति मैं कोबिद, भावना भेद स्वरूप को ठानै।
चाह के रंग में भीज्यौ हियो, बिछुरे मिलें प्रीतम, सांति न मानै।
भाषा प्रवीन, सुछंद सदा रहै, सो घनजू के कवित्त बखानै।
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समुझै कविता घनानँद को हिय आँखिन नेह की पीर तकी।
अर्थात् घनानंद की कविता को वही समझ सकता है, जिसने ‘प्रेम की पीर’ को हृदय की आँख से देखा हो, यानि अनुभव किया हो; जो सौन्दर्य के भेदो-प्रभेदों को जानता हो, संयोग और वियोग की रीति में पंडित हो, भावना के विभेदों के स्वरूप को हृदयंगम कर समझने वाला हो, प्रेम के रंग में जिसका हृदय भीग चुका हो, जो ब्रजभाषा में प्रवीण हो, जो जीवन और काव्य के रुढ़िगत बंधनों को स्वीकार न करता हो—वही व्यक्ति घनानंद की कविता का बखान कर सकता है, उनके गुणों और विशेषताओं का मार्मिक उद्घाटन कर सकता है।
घनानंद मूलतः प्रेम, सौन्दर्य एवं ब्रजभाषा के लाक्षणिक प्रयोग के सबसे बड़े कवि हैं। वे लगातार रीतिकाल के समय में रहते हुए भी रीतिशास्त्री, जड़सौन्दर्यशास्त्री चेतना का विरोध करते हुए, अपने हृदय की गहन अनुभूतियों को, अपनी ही सौन्दर्य चेतना को और अपनी ही जीवनानुभवों को कविता में इतनी जगह देते हैं कि वह संगीत की तरह ब्रह्मानुभूति से हम सबका साक्षात्कार कराते हैं। प्रेम और सौन्दर्य दोनों ही उनके लिए ईश्वर अनुभूति और ईश्वर के प्रति रति का माध्यम बन जाते हैं। अतः वे हमारे आन्तरिक भाव–सौन्दर्य के सबसे बड़े कवि हैं।
वे मन की अनंत गहराइयों से कविता लिखते थे। कविता उनके लिए अपने ही जीवन को धूँ–धूँ कर जलते देखने की निशानी थी। उनके यहाँ जो कुछ भी कविता में कहा गया है, वह कोई शब्दों की कारीगरी नहीं है; वह जीवन का अनुभव सत्य है। जीवन की मार्ग–पीड़ा से गुजरने का घोर यथार्थ इनकी कविता में अभिव्यक्त होता है। यहाँ प्रेम को उसके एक–एक स्पन्दन, एक–एक गति में समझाने की कोशिश की गई है। कवि जिस अनुभव सत्य को प्रकट करता है, वह मरणान्तक पीड़ा का अनुभव है।
घनानंद मुग़लदरबार की प्रसिद्ध नर्तकी सुजान से प्रेम करते थे। इसकी वजह से उन्हें मुग़लदरबार से निकाला गया था, किन्तु फिर भी उन्होंने सुजान का नाम नहीं त्यागा। इन्होंने अपनी कविताओं में बराबर ‘सुजान’ को संबोधित किया है। शृंगार में इस शब्द का व्यवहार नायक–नायिका के लिए और भक्ति भावना में श्रीकृष्ण व श्री राधिका जी के लिए मानना चाहिए।
वे लौकिक प्रेम को यहाँ दीवानगी की चरमावस्था में अलौकिक धरातल पर, जीव व ब्रह्म की एकात्मक सत्ता को प्रकट करने में समर्थ हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रंथ में लिखा है कि:
“ ‘प्रेम की पीर’ ही को लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ है।”
“अनुभूति का संबंध जब सशरीर प्रिय से हट कर अनुभूत्यात्मक हो जाता है, तो उसका संबंध परम सत्ता से बना प्रतीत होने लगता है।... यहाँ प्रेम का विषय सांसारिक प्राणी भी हो सकता है और परमेश्वर भी। ऐसी उक्तियों में रहस्यात्मक की स्पष्ट झलक मिलती है। घनानंद के प्रेम का उदय अवश्य सुजान के शरीर से हुआ था, पर उसकी परिणति सुजान (सु + ज्ञान) परमेश्वर में हुई थी। उनकी शैली उत्तम पुरुष–प्रधान आत्मनिवेदन की है, प्रेम की अनुभूतियों को इन्होंने अपनी बना कर प्रस्तुत किया है।” – डॉ. नगेन्द्र की किताब, हिंदी साहित्य का इतिहास
प्रेम की गति व सौन्दर्य की भेदकता को कवि मानवीय बेचैनी के साथ प्रकट करता है। सौन्दर्य की छवि मन में ऐसे उमड़ती है, मानो पहले कभी नहीं देखा हो –
रावरे, रूप की रीति अनूप
नयौ नयौ लागत ज्यौं ज्यौं निहारियै।
यह नयापन ही सौन्दर्य की गति व तीव्रता को सामने लाता है। घनानंद जिस सौन्दर्य चेतना को प्रकट करते हैं, वह उनका भोगा हुआ अनुभव–सत्य है। यहाँ उनकी नायिका का बार–बार मुड़कर चलना, एड़ी की गति और चेहरे पर छाये हुए बालों को झटक देने में जो गति अनुभव की जाती है, सौन्दर्य का जो अनुभव बनता है, वह मनुष्य को विस्मृत कर देता है।
घनानंद केवल सौन्दर्य की बारीकियों को ही नहीं बतलाते, बल्कि प्रेम के दर्शन और प्रेम की सच्चाई से भी दो–चार कराते हैं; जैसे –
अति सूधो सनेह को मारग है, जहं नैकु सयापन बाँक नहीं।
तहं साँचे चलै, तजि आपनपौ, झिझकैं कपटी जो निसाँक नहीं।
घनानंद प्यारे सुजान सुनौ, इति एक तें दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।।
मतलब यह है कि प्रेम का रास्ता बहुत सीधा और सच्चा है। इस चलने के लिए किसी चालाकी की जरूरत नहीं है। सच्चे मन से कोई भी प्रेम के पथ पर चल सकता है। पर झूठे, कपटी और छल–परपंज करने वालों के लिए प्रेम का रास्ता नहीं है।
घनानंद बार–बार अपनी पीड़ा, अपने दर्द व अपनी यातना को सामने रखते हैं। प्रेम की कीमत को अपने आँसुओं से सींचते हैं, और इन सब के बाद अपने प्रेमास्पद के लिए मंगलकामना भी करते हैं।
घनानंद ने प्रेम की निराशा को नितांत वैयक्तिकता की सीमा से बाहर निकालकर उसका उदात्तीकरण किया है। उनका समूचा साहित्य इस बात का प्रमाण है।
इस तरह घनानंद रीतिमुक्त काव्यधारा के ही नहीं, बल्कि समूचे हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण कवि हैं। इन्होंने रीतिकालीन जड़ता को पहचान और अपने साहित्य में उसका रचनात्मक विरोध किया –
लोग हैं, लागी कवित्त बनावत,
मोहि तौ मेरे कवित्त बनावत।
लेखक: दिनेश नागर, राजस्थान।
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