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राष्ट्रवाद : आत्मा की शपथ

राष्ट्रवाद : आत्मा की शपथ राष्ट्रवाद कोई शुष्क विचार नहीं, वह आत्मा की शपथ है— एक अखण्ड ज्योति, जो हमारी संस्कृति को निरंतर आलोकित करती रहती है। राष्ट्र न किसी का निजी अधिकार है, न किसी विचारधारा की संकीर्ण परिभाषा। वह तो हमारी सामूहिक चेतना है, हमारी समवेत वाणी की शाश्वत भाषा। राष्ट्र वह विराट वटवृक्ष है, जिसकी जड़ें आत्मा की गहराइयों में धँसी हैं, और जिसकी शाखाएँ जीवन को छाँह, आश्रय और अमिट सुरक्षा प्रदान करती हैं। राज्य को बाँधता है संविधान, पर राष्ट्र को साधती है आत्मा। राज्य बाहरी अनुशासन है, जबकि राष्ट्र भीतरी अनुभूति— हृदय की गहराइयों से उठती हुई शपथ। जब जाति, धर्म, भाषा और अर्थ की रेखाएँ राष्ट्र की गंगा में उतरती हैं, तो लहरों की भाँति विलीन हो जाती हैं। यही भावना किसान को यह शक्ति देती है कि तपती धूप और कड़ाके की ठंड में भी वह अन्न उगाता रहे। यही भावना सैनिक को यह संकल्प देती है कि वह सीमाओं पर पर्वत की भाँति अडिग खड़ा रहे। राष्ट्रवाद कोई बाहरी शोर नहीं, यह अंतर्मन की वीणा की तान है— जो हमें बार-बार स्मरण कराती है कि हमारी सबसे बड़ी पहचान, हम...

आदिकालीन परिस्थितियाँ

  आदिकालीन परिस्थितियाँ हिंदी साहित्य की विकासगाथा एक अनंत प्रवाहमान सरिता है, जिसकी प्रथम लहर आदिकाल से फूटकर संपूर्ण साहित्यिक परंपरा की दिशा निर्धारित करती है। इस युग का विवेचन तभी संभव हो सकता है जब हम उसके युगीन परिवेश का सूक्ष्म अध्ययन करें, क्योंकि परिवेश और इतिहास ही साहित्यिक चेतना के वास्तविक शिल्पी हैं। आदिकालीन साहित्य मात्र शब्द-संरचना नहीं, अपितु उस काल की राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक एवं आर्थिक विषमता तथा मानव-मन की आकांक्षाओं और संघर्षों का जीवन्त प्रतिबिंब है। यह काव्य केवल काव्याभिव्यक्ति भर नहीं, बल्कि युग-यथार्थ का उज्ज्वल दर्पण है, जिसमें तत्कालीन मानव-जीवन के स्वप्न, मूल्य और संघर्ष ध्वनित होते हैं। इसीलिए आदिकाल की कृतियाँ मात्र मनोरंजन का साधन न होकर उस युग की आत्मा की स्पंदन-गाथा कही जा सकती हैं। राजनीतिक स्थिति अंतिम वर्धन सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत की संगठित सत्ता छोटे-छोटे राजपूत राज्यों में विभाजित हो गई। अपने अहंकार में हिंदू राजा आपसी युद्धों में उलझे रहते थे। यहाँ तक कि किसी राजा की सुंदर कन्या का अपहरण करने हेतु भी युद्ध छिड़ जाया करते थे...

आदिकाल का नामकरण : एक आलोचनात्मक विवेचन

आदिकाल का नामकरण : एक आलोचनात्मक विवेचन हिंदी साहित्य का इतिहास सामान्यतः चार प्रमुख कालखंडों में विभाजित किया जाता है—आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल। इनमें से आदिकाल को हिंदी साहित्य के प्रारंभिक विकास-चरण के रूप में मान्यता प्राप्त है। इस युग के नामकरण को लेकर विद्वानों के मध्य पर्याप्त मतभेद परिलक्षित होते हैं। वस्तुतः आदिकाल की विविध प्रवृत्तियों और बहुआयामी काव्यधारा के कारण इसे किसी एक ही नाम से परिभाषित करना सरल नहीं है। चारणकाल: डॉ. ग्रियर्सन ने इस काल को चारण काल की संज्ञा दी। उनका आधार मुख्यतः चारण कवियों की रचनाएँ थीं।  आपत्ति:   ग्रियर्सन ने काल-प्रारंभ लगभग 643 ई. माना, किंतु उस समय की कोई प्रामाणिक चारण-रचना उपलब्ध नहीं है। चारण साहित्य लगभग 1000 ई. के आसपास प्राप्त होता है। साथ ही आदिकाल केवल चारण कवियों तक सीमित नहीं था। अतः यह नामकरण संकीर्ण और ऐतिहासिक दृष्टि से असंगत सिद्ध होता है। सिद्ध-सामंत काल   आचार्य राहुल सांकृत्यायन ने इसे सिद्ध-सामंत काल कहा और सिद्धों की वाणी तथा सामंतों की स्तुतियों को इसका आधार माना। आपत्ति:  यह नामकरण केवल दो ...

तुम कहाँ हो

तुम कहाँ हो कितना सत्य है, राम! नहीं जानता — तुम कहाँ हो? पर एक बात कहूँ? प्रेम... प्रेम यहाँ भी है, प्रेम वहाँ भी है। अगर तुम कण-कण में व्याप्त हो, हृदय की धड़कन, सत्य-निधि हो; तो जितना सत्य तुम्हारा है, उतना ही सत्य हमारा भी है — राम! हम हैं — तो तुम हो; तुम हो — तो हम हैं। अगर सत्य यही है, तो फिर यह दूरी क्यों? तुम भी यहीं आ जाओ, हम भी वहीं आ जाते हैं। तुम तो वहीं थे, जहाँ होना था। मैं पहुँचा ही नहीं वहाँ, जहाँ मिलना था। मैं उलझ गया था दर्शन में... तो इसमें भी तुम्हारी गलती है, राम? पर तुम आते न — राम! रास्ता दिखाने को, इस जीवन-पथ में... मित्र! मिलन वहीं है जहाँ प्रेम की पूजा और समर्पण की भक्ति हो — क्योंकि — प्रेम यहाँ भी है, प्रेम वहाँ भी है... सत्य कहा जाए — तो भी है। ना कहा जाए — तो भी है। राम, राम! सुनो न, राम... प्रेम जहाँ है, तुम वहीं हो ना, राम! लेखक : दिनेश नागर, राजस्थान

हिंदी साहित्य : आदिकाल की विशेषताएँ | Hindi Sahitya : Adikal ki Visheshatayen

आदिकाल की विशेषताएँ   आदिकाल हिंदी साहित्य का प्रारंभिक विकास-चरण है। इस युग के साहित्य में विषयवस्तु और कला—दोनों ही दृष्टियों से अनेक विशिष्ट विशेषताएँ मिलती हैं। इन्हें भावपक्ष और कलापक्ष की दृष्टि से निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है—   भावपक्ष विषयक विशेषताएँ: 1 . वीरगाथात्मकता आदिकालीन साहित्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी वीरगाथात्मकता है। इस युग के कवियों ने मुख्यतः राजाओं की वीरता और पराक्रम का गान किया। युद्धभूमि के रोमांचकारी दृश्य, शौर्यपूर्ण साहसिक कारनामे तथा देश-धर्म की रक्षा हेतु किए गए संघर्ष आदिकालीन काव्य के मूल विषय रहे हैं। ‘पृथ्वीराज रासो’ में पृथ्वीराज चौहान की वीरता और शौर्य का अत्यंत भावपूर्ण चित्रण हुआ है। इसी प्रकार अन्य कृतियों में भी आक्रांताओं से हुए युद्ध, रणभूमि के उत्साहपूर्ण दृश्य और वीरों की गौरवगाथाएँ अंकित हैं।  2. युद्धों का सजीव चित्रण आदिकालीन साहित्य में युद्धों का अत्यंत सजीव और प्रभावशाली चित्रण मिलता है। कवियों ने रणभूमि के दृश्य इस प्रकार प्रस्तुत किए हैं कि पाठक स्वयं को युद्धक्षेत्र में उपस्थित अनुभव करता है।...