राष्ट्रवाद : आत्मा की शपथ
राष्ट्रवाद : आत्मा की शपथ राष्ट्रवाद कोई शुष्क विचार नहीं, वह आत्मा की शपथ है— एक अखण्ड ज्योति, जो हमारी संस्कृति को निरंतर आलोकित करती रहती है। राष्ट्र न किसी का निजी अधिकार है, न किसी विचारधारा की संकीर्ण परिभाषा। वह तो हमारी सामूहिक चेतना है, हमारी समवेत वाणी की शाश्वत भाषा। राष्ट्र वह विराट वटवृक्ष है, जिसकी जड़ें आत्मा की गहराइयों में धँसी हैं, और जिसकी शाखाएँ जीवन को छाँह, आश्रय और अमिट सुरक्षा प्रदान करती हैं। राज्य को बाँधता है संविधान, पर राष्ट्र को साधती है आत्मा। राज्य बाहरी अनुशासन है, जबकि राष्ट्र भीतरी अनुभूति— हृदय की गहराइयों से उठती हुई शपथ। जब जाति, धर्म, भाषा और अर्थ की रेखाएँ राष्ट्र की गंगा में उतरती हैं, तो लहरों की भाँति विलीन हो जाती हैं। यही भावना किसान को यह शक्ति देती है कि तपती धूप और कड़ाके की ठंड में भी वह अन्न उगाता रहे। यही भावना सैनिक को यह संकल्प देती है कि वह सीमाओं पर पर्वत की भाँति अडिग खड़ा रहे। राष्ट्रवाद कोई बाहरी शोर नहीं, यह अंतर्मन की वीणा की तान है— जो हमें बार-बार स्मरण कराती है कि हमारी सबसे बड़ी पहचान, हम...