विवेक कुमार मिश्र: मौन की गूंज और अस्तित्व का संगीत
विवेक कुमार मिश्र: मौन
की गूंज और अस्तित्व का संगीत
लेखक: दिनेश नागर, राजस्थान।
समकालीन हिंदी साहित्य की सजीव धारा में, विवेक कुमार मिश्र वह नाम है, जिसकी लेखनी मानवीय अस्तित्व, प्रकृति और परिवेश को एक साझा व्याकरण में बाँध देती है। उनके यहाँ कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि जीवन के गहन प्रश्नों से जूझने की भूमि है। यह भूमि ऐसी है, जहाँ पेड़, धरती, मौन और मनुष्य—सभी एक ही वाक्य के शब्द बन जाते हैं।
मिश्र ने अस्तित्ववाद को निरर्थकता और अकेलेपन की पश्चिमी परिभाषाओं से मुक्त कर, उसे भारतीय चेतना की सामूहिकता में रूपांतरित किया है। उनके लिए अस्तित्व का अर्थ केवल ‘मैं’ होना नहीं, बल्कि ‘हम सब’ का एक साथ होना है। उनका काव्य-संग्रह चुप्पियों के पथ पर इसी विचार का सशक्त उद्घोष है—जहाँ मौन भी बोलता है, और संसार स्वयं आकर अपने होने का साक्ष्य देता है।
“संसार…
अपने को घोषित करता रहता है...”
वास्तव में, उनके काव्य में मौन और प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं हैं; वे जीवन की गहन अनुभूतियों के संवाहक हैं। उनके लिए मौन केवल अनिर्वचनीय शून्यता नहीं, बल्कि संवाद का अदृश्य माध्यम है। जहाँ आम दृष्टि केवल शब्दों में अर्थ खोजती है, वहाँ मिश्र का मौन अनुभव, संवेदना और अस्तित्व की गहनता को उद्घाटित करता है। यही कारण है कि उनका साहित्य पढ़ते समय पाठक स्वयं भी मौन में, अपने भीतर, संसार की गूँज सुनता है।
उनकी रचनाओं में प्रकृति केवल दृश्य नहीं, बल्कि चरित्र है। कुछ हो जाते पेड़ सा… में वृक्ष धैर्य और तप की प्रतिमूर्ति बनकर यह स्मरण कराते हैं कि मनुष्य की रेखा संघर्ष और सहनशीलता से ही पूर्ण होती है। वृक्ष केवल पेड़ नहीं, बल्कि जीवन की वह छाया है, जो निरंतर सहनशीलता और स्थायित्व का प्रतीक बनकर हमारे अस्तित्व को स्थिर करती है। यही कारण है कि उनकी कविताएँ, चाहे चाय, जीवन और बातें हों या फ़ुर्सतगंज वाली सुकून भरी चाय, साधारण अनुभवों को सांस्कृतिक और मानवीय प्रतीक में बदल देती हैं। इन काव्यों में चाय केवल पेय नहीं, बल्कि संवाद, साझेदारी और आत्मीयता का स्वाद घोलने वाला माध्यम बन जाती है।
समकालीन हिंदी कविता के परिदृश्य में विवेक कुमार मिश्र की उपस्थिति एक ऐसे कवि की है, जिनकी कविताओं में अस्तित्व, प्रकृति और मानवीय चेतना का अनूठा संगम दिखाई देता है। उनकी रचनाएँ मात्र भावाभिव्यक्ति का साधन नहीं हैं, बल्कि जीवन के गहन प्रश्नों को शब्द देने का प्रयास हैं। वे उस परंपरा के कवि हैं, जो मानवीय संवेदना और प्रकृति को किसी भिन्न सत्ता की तरह नहीं, बल्कि एक साझा व्याकरण की तरह देखते हैं। उनकी कविता में वृक्ष, पृथ्वी, मौन और मनुष्य—सभी एक ही वाक्य के शब्द बनकर अवतरित होते हैं और पाठक की चेतना को स्पर्श करते हैं।
मिश्र का काव्य इस बात का साक्ष्य है कि अस्तित्व केवल दार्शनिक विमर्श नहीं, बल्कि जीवन की ठोस भूमि पर घटित अनुभव है। पश्चिमी साहित्य में अस्तित्ववाद प्रायः अकेलेपन, निरर्थकता और शून्य-बोध का दार्शनिक प्रतिफल रहा है; किंतु विवेक कुमार मिश्र ने इसे भारतीय चेतना की सामूहिकता में रूपांतरित कर दिया है। उनके लिए अस्तित्व का अर्थ ‘मैं’ का बंद घेरा नहीं, बल्कि ‘हम सब’ की सामूहिकता है। यही कारण है कि उनके संग्रह चुप्पियों के पथ पर में मौन भी बोलता है, और संसार स्वयं अपने होने का प्रमाण बन जाता है—
“यह संसार
इसी तरह पड़ा रह जाता
यदि तुम इस पर
रंगों का जादू नहीं घुमाते...
पृथ्वी का विस्तार तुम्हारे साथ ही है।
तुम हो तो अस्तित्व है,
और संसार का रंग-रूप
तुम्हारे होने से ही अधिक पूर्ण।”
यहाँ संसार और मनुष्य का संबंध परस्पर आश्रित है। मनुष्य बिना संसार के अधूरा है, और संसार मनुष्य की उपस्थिति से ही अधिक पूर्ण। यह दृष्टि पश्चिमी अस्तित्ववाद की निराशाजन्यता से भिन्न है, क्योंकि यहाँ जीवन का स्रोत अंधकार या एकांत नहीं, बल्कि सामूहिकता और सहजीवन है।
मिश्र की कविताओं में सत्य केवल दार्शनिक अवधारणा नहीं, बल्कि जीवन को दिशा देने वाला दीपक है। उनके लिए सत्य वह शक्ति है, जो मनुष्य को उसके संकुचित ‘मैं’ से मुक्त कर, व्यापक ‘हम’ में प्रतिष्ठित करती है। वे लिखते हैं—
“सत्य बराबर से कहता है कि
एक बार तुम सत्य को रख दो,
फिर बाकी सारा काम
सत्य कर लेगा...
सत्य की आवाज़
हर जगह सुनी जाती है।”
यहाँ सत्य, ईश्वर और मानवता का त्रिवेणी-संयोग दिखाई देता है। सत्य केवल बौद्धिक तर्क नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुभूति है, जो हर जगह विद्यमान है और हर मनुष्य को आलोकित करती है। इस दृष्टि से विवेक कुमार मिश्र ने अस्तित्ववाद को निराशा की गुफा से निकालकर आशा, सत्य और सहजीवन की उजली जमीन पर स्थापित किया है।
उनकी कविता की एक प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें प्रकृति केवल दृश्य नहीं है, बल्कि जीवंत चरित्र है। पेड़, नदियाँ, पृथ्वी और चाय—ये सब उनकी कविताओं में प्रतीक मात्र न होकर अनुभव की धुरी बन जाते हैं। कुछ हो जाते पेड़ सा कविता में वृक्ष धैर्य और स्थायित्व के प्रतीक बनकर उपस्थित होते हैं—
“कुछ हो जाते पेड़ सा
जो चुप रहते हुए भी
सबसे अधिक बोलते हैं
अपनी हरियाली, अपनी छाँव,
अपने स्थायित्व से।”
इसी प्रकार, उनकी कविताओं में ‘चाय’ एक सांस्कृतिक प्रतीक का रूप ले लेती है। चाय पीते हुए जीवन थोड़ा ठहरता है…जैसी पंक्तियाँ हमें यह याद दिलाती हैं कि जीवन के सरलतम क्षण भी संवाद और संबंध की गहराई समेट सकते हैं। चाय केवल पेय नहीं, बल्कि ठहराव, आत्मीयता और साझेदारी का प्रतीक बन जाती है—
“चाय पीते हुए
जीवन थोड़ा ठहरता है...
और हर घूँट में
कोई पुरानी स्मृति
धीरे-धीरे घुलती चली जाती है।”
इन कविताओं से स्पष्ट है कि विवेक कुमार मिश्र साधारण अनुभवों में भी असाधारण अर्थ खोज लेते हैं। वे बताते हैं कि मनुष्य चाहे कितना भी आगे क्यों न बढ़ जाए, अंततः उसे लौटना ही पड़ता है—आदमियों की दुनिया में, नदियों के किनारे, सभ्यता की उसी भूमि पर जहाँ जीवन का स्रोत है। उनकी पंक्तियाँ इस सत्य की गवाही देती हैं—
“लोग बार-बार लौटना चाहते हैं
आदमियों की दुनिया में...
अंततः आदमी कहीं भी पहुँच जाए,
एक दिन लौटना होगा
आदमियों की दुनिया में,
और अंततः माँ के पास।”
यह लौटना मात्र भौगोलिक वापसी नहीं, बल्कि अस्तित्व की सच्ची पहचान की ओर लौटना है। यह स्मरण कराता है कि मनुष्य का जीवन प्रकृति और समाज से जुड़कर ही सार्थक होता है। यही दृष्टि उनकी कविताओं में बार-बार आती है—प्रकृति और मनुष्य का संबंध केवल सह-अस्तित्व नहीं, बल्कि जीवन की गहन समझ और संवेदनशीलता का प्रतीक है।
आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो विवेक कुमार मिश्र ने अस्तित्ववाद को पश्चिम की निराशाजनक व्याख्याओं से बचाकर उसे भारतीय जीवन-दर्शन की सामूहिकता, आशा और सत्य में प्रतिष्ठित किया है। उनका साहित्य कृत्रिम शोर नहीं रचता, बल्कि जीवन के सहज क्षणों, मौन के अंतरालों और प्रकृति की हरियाली से अपना स्वर ग्रहण करता है। यही कारण है कि उनकी कविताएँ पाठक के भीतर धीरे-धीरे उतरती हैं और उसकी चेतना को जाग्रत करती हैं।
उनकी रचनाएँ पाठक को यह एहसास कराती हैं कि जीवन केवल ‘मैं’ का अनुभव नहीं, बल्कि ‘हम’ की सामूहिक अनुभूति है। अस्तित्व का अर्थ केवल व्यक्तिगत पहचान में नहीं, बल्कि सामाजिक और प्राकृतिक परिप्रेक्ष्य में है। उनकी कविताएँ, चाहे प्रकृति के दृश्य हों या चाय के क्षण, हमें यह सिखाती हैं कि जीवन की गहनता और सार्थकता छोटे, सहज अनुभवों में छिपी होती है।
निष्कर्षतः, कहा जा सकता है कि विवेक कुमार मिश्र का साहित्य एक महावृत्तांत है—जहाँ चुप्पियाँ भी बोलती हैं, वृक्ष स्मृतियों के पृष्ठ खोलते हैं, और चाय संवाद का सेतु बन जाती है। उनकी कविताएँ हमें यह सिखाती हैं कि जीवन की सच्ची उपलब्धि ‘मैं’ की सीमाओं से निकलकर ‘हम’ की सामूहिकता में है। यही वह अस्तित्व की हरी पृथ्वी है, जिसे विवेक कुमार मिश्र ने अपने शब्दों से सींचा है, और जो आज के साहित्य को जीवन की नई दिशा प्रदान करती है।
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