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  🕯️ ‘अंधेरे में’ कविता प्रश्न-उत्तर एवं व्याख्या  (मुक्तिबोध कृत) 1. “...‘अंधेरे में’ कविता की अंतिम पंक्तियाँ अस्मिता या आइडेंटिटी की खोज की ओर संकेत करती हैं।” यह कथन किस आलोचक का है? (1) रामविलास शर्मा (2) डॉ. नगेन्द्र   (3) नामवर सिंह   (4) रामस्वरूप चतुर्वेदी उत्तर एवं व्याख्या: (3)  यह कथन नामवर सिंह का है।यह उन्होंने आधुनिक मनुष्य की अस्मिता-समस्या को रेखांकित करते हुए कहा है। 2. ‘अंधेरे में’ कविता में प्रतीक के रूप में नहीं है – (1) शिशु   (2) तालाब   (3) अरुण कमल   (4) रक्तालोक स्नात पुरुष उत्तर एवं व्याख्या: (2) ‘तालाब’ प्रतीक रूप में नहीं आया है। कविता में अरुण कमल, बरगद, रक्तालोक आदि प्रमुख प्रतीक हैं। 3. ‘अंधेरे में’ कविता में डोमा जी उस्ताद हैं – (1) पत्रकार   (2) साहित्यकार   (3) क्रांतिकारी   (4) कुख्यात हत्यारा उत्तर एवं व्याख्या: (4)  डोमा जी शहर के कुख्यात हत्यारे हैं। 4. ‘अँधेरे में’ कविता के विचित्र जुलूस (प्रोसेशन) में कौन शामिल नहीं था? (1) विद्यार्थी   (2) उद्योगपति   (3) आलोचक   (4) कवि   (5) मंत्री   (6) शहर का हत्यारा उत्तर एवं व्याख्या:...
बिहारी : काव्य, कला और जीवन का पूर्ण समन्वयकारी कवि बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। रीतिकाल को समझने के लिए बिहारी से बड़ा कोई संदर्भ नहीं मिलता। उनकी सबसे बड़ी विशेषता है—कल्पना की समाहारशक्ति के साथ भाषा की समाहारशक्ति। दोहे जैसे छोटे–से छंद में जीवन के बहुआयामी भावों को समेटने में वे पारंगत हैं। बिहारी को रीतिसिद्ध कवि माना गया है। वे मूलतः जीवन और प्रकृति के गहन पर्यवेक्षक कवि हैं। मुक्तककार होने के बावजूद बिहारी ने जीवन की बहुलता, उसकी व्यापकता और गहराई को अत्यंत व्यापक संदर्भों में प्रस्तुत किया है, जिससे प्रत्येक पहलू का सार और उसका गूढ़ अर्थ पाठक के समक्ष स्पष्ट रूप से उभरकर आता है। मध्यकालीन सामंती परिवेश, भौतिकता और चकाचौंध से भरे समाज में, ऐश्वर्य में डूबे राजकुमारों–राजकुमारियों को जीवन की सच्चाइयों, मानवीय मूल्यों और व्यावहारिक अनुभवों की ओर सावधान करने का प्रयत्न उन्होंने लगातार किया। उनके दोहे सामंती मनोवृत्ति पर तीखी टिप्पणी और सूक्ष्म व्यंग्य के रूप में सामने आते हैं, जो जीवन की यथार्थता और सामाजिक चेतना दोनों को प्रकट करते हैं। कहा जाता है कि जब बिहारी राजा जयस...

रीतिकाल का वर्गीकरण : रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त

रीतिकाल का वर्गीकरण : रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने रीतिकालीन काव्य को तीन श्रेणियों – रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त – में विभाजित किया है। यह विभाजन रीतिकाल के कवियों की रचनात्मक प्रवृत्ति, उनकी काव्य–दृष्टि और शास्त्रीय अनुशासन के आधार पर किया गया है। इस वर्गीकरण से रीतिकालीन काव्य की विविध दिशाओं, प्रवृत्तियों और काव्यात्मक चेतना का स्पष्ट ज्ञान होता है। रीतिबद्ध काव्य रीतिबद्ध कवि कविता की बंधी–बंधाई परिपाटी और शास्त्रीय बंधनों से बंधे हुए थे। इनकी कविता निश्चित छंद, रस और अलंकारों के अनुशासन में ढली हुई दिखाई पड़ती है। रीतिबद्ध कवि नायक–नायिका भेद, रसशास्त्र, अलंकारशास्त्र, छंदशास्त्र आदि के अनुरूप उदाहरण–शैली में कविता रचते थे। उनका उद्देश्य शास्त्र के सिद्धांतों का व्यावहारिक रूप से प्रदर्शन करना था। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार, ‘रीतिबद्ध’ रचना लक्षणों और उदाहरणों से युक्त होती है। किन्तु डॉ. नगेन्द्र इस प्रकार की रचनाएँ करने वाले कवियों को रीतिबद्ध कवि कहने के पक्ष में नहीं हैं। उनका मत है कि इन कवियों ने काव्यशास्त्र का सोदाहरण ...

‘राम की शक्ति पूजा’ — प्रश्नोत्तर एवं व्याख्या

  🕉️ ‘राम की शक्ति पूजा’ — प्रश्नोत्तर एवं व्याख्या (महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ कृत) 1. ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता से संबंधित असंगत कथन है – (1) राम–रावण समर का इतना विराट चित्र दुर्लभ है। (2) राम को शक्ति की पूजा का सुझाव जामवंत से मिला था। (3) राम की शक्ति पूजा का उल्लेख श्रीमद्भागवत पुराण में है। (4) राम को रावण पर विजय का वरदान देवी से प्राप्त हुआ था। (5) राम की शक्ति पूजा में राम मानव अधिक, देव कम हैं। (6) कविता की अंतिम पंक्ति है —  “कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।” उत्तर एवं व्याख्या: (3)  महाप्राण निराला द्वारा रचित ‘राम की शक्ति पूजा’ का आधार बांग्ला ग्रंथ ‘कृत्तिवास रामायण’ है, न कि श्रीमद्भागवत पुराण या रामचरितमानस। यह एक लम्बी, प्रतीकात्मक और दार्शनिक कविता है। 2. ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता विषयक असंगत कथन है – (1) यह कविता ‘अनामिका’ के द्वितीय संस्करण में संकलित है। (2) यह सर्वप्रथम ‘दैनिक भारत’ नामक पत्र में प्रकाशित हुई। (3) इसमें ‘तुलसीदास’ और ‘सरोज स्मृति’ दो कविताओं का सार तत्व है। — डॉ. रामविलास शर्मा (4) इनमें से कोई नहीं उत्तर: एवं व्याख...

सिद्ध साहित्य : स्वरूप, विकास और विशेषताएँ

  सिद्ध साहित्य : स्वरूप,  विकास और विशेषताएँ सिद्ध साहित्य ने आदिकालीन हिंदी साहित्य में मानव-चेतना के जागरण और सामाजिक सुधार में अद्वितीय योगदान दिया। यह वह युग था जब समाज धर्म, संस्कृति और ज्ञान — तीनों स्तरों पर गहन परिवर्तन से गुजर रहा था। वैदिक परंपराएँ जहाँ कर्मकांडों और जातिगत बंधनों में जकड़ चुकी थीं, वहीं बौद्ध धर्म अपनी मूल सहजता और करुणा के मार्ग से हटकर तांत्रिक आडंबरों और दिखावे में उलझ गया था। इस संक्रमणकाल में कुछ चिंतनशील साधक और मनीषी आगे आए, जिन्होंने समाज के पाखंड, आडंबर और धार्मिक दिखावे की परतों को हटाकर मानव-चेतना को प्रत्यक्ष अनुभव और सत्य की ओर मोड़ दिया। यही वे सिद्ध योगी थे, जिनकी अनुभूति-प्रेरित वाणी और जीवन-दृष्टि से सिद्ध साहित्य का उद्भव हुआ। सिद्ध साहित्य केवल धार्मिक या दार्शनिक अभिव्यक्ति नहीं था, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक और बौद्धिक क्रांति का दस्तावेज भी था। इस साहित्य ने जीवन के मौलिक मूल्यों, साधना की सहजता और मानवता की प्रतिष्ठा पर बल दिया। इसमें यह स्पष्ट किया गया कि मुक्ति और ज्ञान किसी मंदिर, ग्रंथ या बाह्य साधन से नहीं, बल्कि मनुष्य...

विवेक कुमार मिश्र: मौन की गूंज और अस्तित्व का संगीत

विवेक कुमार मिश्र: मौन की गूंज और अस्तित्व का संगीत लेखक: दिनेश नागर, राजस्थान।   समकालीन हिंदी साहित्य की सजीव धारा में, विवेक कुमार मिश्र वह नाम है, जिसकी लेखनी मानवीय अस्तित्व, प्रकृति और परिवेश को एक साझा व्याकरण में बाँध देती है। उनके यहाँ कविता केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि जीवन के गहन प्रश्नों से जूझने की भूमि है। यह भूमि ऐसी है, जहाँ पेड़, धरती, मौन और मनुष्य—सभी एक ही वाक्य के शब्द बन जाते हैं । मिश्र ने अस्तित्ववाद को निरर्थकता और अकेलेपन की पश्चिमी परिभाषाओं से मुक्त कर, उसे भारतीय चेतना की सामूहिकता में रूपांतरित किया है। उनके लिए अस्तित्व का अर्थ केवल ‘मैं’ होना नहीं, बल्कि ‘हम सब’ का एक साथ होना है। उनका काव्य-संग्रह चुप्पियों के पथ पर इसी विचार का सशक्त उद्घोष है—जहाँ मौन भी बोलता है, और संसार स्वयं आकर अपने होने का साक्ष्य देता है। “संसार… अपने को घोषित करता रहता है...” वास्तव में, उनके काव्य में मौन और प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं हैं; वे जीवन की गहन अनुभूतियों के संवाहक हैं। उनके लिए मौन केवल अनिर्वचनीय शून्यता नहीं, बल्कि संवाद का अदृश्य माध्यम है। जहाँ ...

घनानंद: प्रेम की पीर का कवि

घनानंद: प्रेम की पीर का कवि घनानंद रीतिमुक्त काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। घनानंद ने अपने मन की अनुभूतियों को शब्दों में ढालकर जीवन–पीड़ा को अभिव्यक्त किया है। घनानंद मूलतः प्रेम और सौन्दर्य के पारखी कवि हैं। इनके यहाँ जो प्रेम है, जो पीड़ा है, वह स्वयं के जीवन–इतिहास से गुजरा हुआ यथार्थ है। इस पीड़ा को समझने के लिए एक अलग आँख की जरूरत है। घनानंद कवित्त के संकलनकर्ता श्री ब्रजनाथ उन्हें समझने की कुछ शर्त रखते हैं – नेही महा ब्रजभाषा–प्रवीण औ सुंदरतानि के भेद को जानै। योग–बियोग की रीति मैं कोबिद, भावना भेद स्वरूप को ठानै। चाह के रंग में भीज्यौ हियो, बिछुरे मिलें प्रीतम, सांति न मानै। भाषा प्रवीन, सुछंद सदा रहै, सो घनजू के कवित्त बखानै।   +                 +                    +                 + समुझै कविता घनानँद को हिय आँखिन नेह की पीर तकी। अर्थात् घनानंद की कविता को वही समझ सकता है, जिसने ‘प्रेम की पीर’ को हृदय की आँख से देखा हो, यानि अन...

रीतिकालीन काव्य का स्वरूप और विशेषताएँ

रीतिकालीन काव्य का स्वरूप और विशेषताएँ रीतिकाल 17वीं शताब्दी के मध्य से 19वीं शताब्दी के मध्य तक भारतीय समाज की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संरचना का ऐसा दस्तावेज़ है, जिसमें शासन-सत्ता के साथ रचना की संगति दिखाई पड़ती है। यह समय मुग़ल-सत्ता के चरमोत्कर्ष और उसके पुनः बिखरने की करुण कहानी से जुड़ा हुआ है। मुगल साम्राज्य अपने वैभव, विलासिता और चकाचौंध के लिए जाना जाता है। इस मुग़लिया वैभव में भारतीय समाज किस तरह देशी-रजवाड़ों व सामंतों के बीच घिरा हुआ था, और राजसत्ता के साथ सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक, संस्कृति व समाज के केंद्र बिंदु कवि किस तरह राजसत्ता से जुड़ने के बाद कविता अपने सामाजिक अभिप्राय से कट जाती है, यह स्पष्ट दिखाई देता है। रीति-कविता अपने जमाने की राजसत्ता से जुड़ी वह कविता है, जो मनुष्य मात्र की चेतना से न जुड़कर राजप्रस्तुति और राजप्रसंशा को ही कविता का धर्म मान लेती है, या इससे आगे बढ़कर अभिजात जीवन-शैली, शब्द-चमत्कार और तराश में डूब जाती है। रीति-कविता मूलतौर पर अभिजात जीवन शैली, चकाचौंध और शिल्प की नायाब प्रस्तुति की कविता है। यहाँ सामाजिक यथार्थ और जीवन की विषमताओं ...

राष्ट्रवाद : आत्मा की शपथ

राष्ट्रवाद : आत्मा की शपथ राष्ट्रवाद कोई शुष्क विचार नहीं, वह आत्मा की शपथ है— एक अखण्ड ज्योति, जो हमारी संस्कृति को निरंतर आलोकित करती रहती है। राष्ट्र न किसी का निजी अधिकार है, न किसी विचारधारा की संकीर्ण परिभाषा। वह तो हमारी सामूहिक चेतना है, हमारी समवेत वाणी की शाश्वत भाषा। राष्ट्र वह विराट वटवृक्ष है, जिसकी जड़ें आत्मा की गहराइयों में धँसी हैं, और जिसकी शाखाएँ जीवन को छाँह, आश्रय और अमिट सुरक्षा प्रदान करती हैं। राज्य को बाँधता है संविधान, पर राष्ट्र को साधती है आत्मा। राज्य बाहरी अनुशासन है, जबकि राष्ट्र भीतरी अनुभूति— हृदय की गहराइयों से उठती हुई शपथ। जब जाति, धर्म, भाषा और अर्थ की रेखाएँ राष्ट्र की गंगा में उतरती हैं, तो लहरों की भाँति विलीन हो जाती हैं। यही भावना किसान को यह शक्ति देती है कि तपती धूप और कड़ाके की ठंड में भी वह अन्न उगाता रहे। यही भावना सैनिक को यह संकल्प देती है कि वह सीमाओं पर पर्वत की भाँति अडिग खड़ा रहे। राष्ट्रवाद कोई बाहरी शोर नहीं, यह अंतर्मन की वीणा की तान है— जो हमें बार-बार स्मरण कराती है कि हमारी सबसे बड़ी पहचान, हम...

आदिकालीन परिस्थितियाँ

  आदिकालीन परिस्थितियाँ हिंदी साहित्य की विकासगाथा एक अनंत प्रवाहमान सरिता है, जिसकी प्रथम लहर आदिकाल से फूटकर संपूर्ण साहित्यिक परंपरा की दिशा निर्धारित करती है। इस युग का विवेचन तभी संभव हो सकता है जब हम उसके युगीन परिवेश का सूक्ष्म अध्ययन करें, क्योंकि परिवेश और इतिहास ही साहित्यिक चेतना के वास्तविक शिल्पी हैं। आदिकालीन साहित्य मात्र शब्द-संरचना नहीं, अपितु उस काल की राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक एवं आर्थिक विषमता तथा मानव-मन की आकांक्षाओं और संघर्षों का जीवन्त प्रतिबिंब है। यह काव्य केवल काव्याभिव्यक्ति भर नहीं, बल्कि युग-यथार्थ का उज्ज्वल दर्पण है, जिसमें तत्कालीन मानव-जीवन के स्वप्न, मूल्य और संघर्ष ध्वनित होते हैं। इसीलिए आदिकाल की कृतियाँ मात्र मनोरंजन का साधन न होकर उस युग की आत्मा की स्पंदन-गाथा कही जा सकती हैं। राजनीतिक स्थिति अंतिम वर्धन सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत की संगठित सत्ता छोटे-छोटे राजपूत राज्यों में विभाजित हो गई। अपने अहंकार में हिंदू राजा आपसी युद्धों में उलझे रहते थे। यहाँ तक कि किसी राजा की सुंदर कन्या का अपहरण करने हेतु भी युद्ध छिड़ जाया करते थे...

आदिकाल का नामकरण : एक आलोचनात्मक विवेचन

आदिकाल का नामकरण : एक आलोचनात्मक विवेचन हिंदी साहित्य का इतिहास सामान्यतः चार प्रमुख कालखंडों में विभाजित किया जाता है—आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल। इनमें से आदिकाल को हिंदी साहित्य के प्रारंभिक विकास-चरण के रूप में मान्यता प्राप्त है। इस युग के नामकरण को लेकर विद्वानों के मध्य पर्याप्त मतभेद परिलक्षित होते हैं। वस्तुतः आदिकाल की विविध प्रवृत्तियों और बहुआयामी काव्यधारा के कारण इसे किसी एक ही नाम से परिभाषित करना सरल नहीं है। चारणकाल: डॉ. ग्रियर्सन ने इस काल को चारण काल की संज्ञा दी। उनका आधार मुख्यतः चारण कवियों की रचनाएँ थीं।  आपत्ति:   ग्रियर्सन ने काल-प्रारंभ लगभग 643 ई. माना, किंतु उस समय की कोई प्रामाणिक चारण-रचना उपलब्ध नहीं है। चारण साहित्य लगभग 1000 ई. के आसपास प्राप्त होता है। साथ ही आदिकाल केवल चारण कवियों तक सीमित नहीं था। अतः यह नामकरण संकीर्ण और ऐतिहासिक दृष्टि से असंगत सिद्ध होता है। सिद्ध-सामंत काल   आचार्य राहुल सांकृत्यायन ने इसे सिद्ध-सामंत काल कहा और सिद्धों की वाणी तथा सामंतों की स्तुतियों को इसका आधार माना। आपत्ति:  यह नामकरण केवल दो ...

तुम कहाँ हो

तुम कहाँ हो कितना सत्य है, राम! नहीं जानता — तुम कहाँ हो? पर एक बात कहूँ? प्रेम... प्रेम यहाँ भी है, प्रेम वहाँ भी है। अगर तुम कण-कण में व्याप्त हो, हृदय की धड़कन, सत्य-निधि हो; तो जितना सत्य तुम्हारा है, उतना ही सत्य हमारा भी है — राम! हम हैं — तो तुम हो; तुम हो — तो हम हैं। अगर सत्य यही है, तो फिर यह दूरी क्यों? तुम भी यहीं आ जाओ, हम भी वहीं आ जाते हैं। तुम तो वहीं थे, जहाँ होना था। मैं पहुँचा ही नहीं वहाँ, जहाँ मिलना था। मैं उलझ गया था दर्शन में... तो इसमें भी तुम्हारी गलती है, राम? पर तुम आते न — राम! रास्ता दिखाने को, इस जीवन-पथ में... मित्र! मिलन वहीं है जहाँ प्रेम की पूजा और समर्पण की भक्ति हो — क्योंकि — प्रेम यहाँ भी है, प्रेम वहाँ भी है... सत्य कहा जाए — तो भी है। ना कहा जाए — तो भी है। राम, राम! सुनो न, राम... प्रेम जहाँ है, तुम वहीं हो ना, राम! लेखक : दिनेश नागर, राजस्थान

हिंदी साहित्य : आदिकाल की विशेषताएँ | Hindi Sahitya : Adikal ki Visheshatayen

आदिकाल की विशेषताएँ   आदिकाल हिंदी साहित्य का प्रारंभिक विकास-चरण है। इस युग के साहित्य में विषयवस्तु और कला—दोनों ही दृष्टियों से अनेक विशिष्ट विशेषताएँ मिलती हैं। इन्हें भावपक्ष और कलापक्ष की दृष्टि से निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है—   भावपक्ष विषयक विशेषताएँ: 1 . वीरगाथात्मकता आदिकालीन साहित्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता इसकी वीरगाथात्मकता है। इस युग के कवियों ने मुख्यतः राजाओं की वीरता और पराक्रम का गान किया। युद्धभूमि के रोमांचकारी दृश्य, शौर्यपूर्ण साहसिक कारनामे तथा देश-धर्म की रक्षा हेतु किए गए संघर्ष आदिकालीन काव्य के मूल विषय रहे हैं। ‘पृथ्वीराज रासो’ में पृथ्वीराज चौहान की वीरता और शौर्य का अत्यंत भावपूर्ण चित्रण हुआ है। इसी प्रकार अन्य कृतियों में भी आक्रांताओं से हुए युद्ध, रणभूमि के उत्साहपूर्ण दृश्य और वीरों की गौरवगाथाएँ अंकित हैं।  2. युद्धों का सजीव चित्रण आदिकालीन साहित्य में युद्धों का अत्यंत सजीव और प्रभावशाली चित्रण मिलता है। कवियों ने रणभूमि के दृश्य इस प्रकार प्रस्तुत किए हैं कि पाठक स्वयं को युद्धक्षेत्र में उपस्थित अनुभव करता है।...